हां मजदूर हूं मैं पर उस से कहीं ज्यादा मजबूर हूं मैं दिन भर मेहनत कर पसीना बहाता हूं तब कहीं जाकर मुठ्ठी भर कमाता हूं मजदूर हूं अपना घर परिवार छोड़के आता हूं शौक नहीं मजबूर हूं इसलिए शहर शहर ठोकरें खाता हूं सोचता था एक धागा हूं जिसमे शहरों के मोती पिरोता हूं सोचता था मै वो कड़ी हूं जो भारत को भारत होने देता हूं ये मोटर,ये गाड़ी आलीशान बंगले साहब सब बने मेरे ही पसीने से हैं वो संसद जिसमे होती है साजिशे मेरे ही खिलाफ वो भी इन्हीं हाथो के नगीने हैं लोग देखते है कारीगरी तो तारीफ करते हैं जब मेरे लिए कुछ करने की बारी होती है तब बस टीवी के आगे बातें करते हैं बहुत तो कहते हैं ये मजदूर है टिकता नहीं है एक जगह देश में महमारी फैलाने की यही है बस एक वजह मुझे तो कोई शौक नहीं दर दर भटकने का रोटी कपड़ा मिलता यहीं पर तो साहब क्यों करता मीलों का पैदल सफर क्या देखते नहीं या दिखता ही नहीं हुक्मरानों को देश का सिपाही देश में ही मोहताज है दाने दाने को (देश में मजदूर होना अभिशाप है मजदूर होने की सज़ा पूरा परिवार भुगतता है) मजबूर मजदूर