व्यथित था ये मन मेरा किस बात की दरकार थी उम्मीद का परिंदा था पाला किस बात की फिर ललकार थी इन धमनियों में जो तेज दौड़ा उस लहू का शुक्रिया जो मन की मन में ही दबाता उस शख्स की बस हार थी व्यथित था ये मन मेरा किस बात की दरकार थी इन आँखों में जो चमकता है वो ख्वाब है या मन की आग मैं हर तरफ से था अभागा पर गहरी उसकी बातों की मार थी तुम जो ठहरो और मंजिल तक चलो सफर में अंतिम पग मेरे संग धरो मैं फिर चीख सुना सकूं अपने मन के सारे हाल और उम्मीद का परिंदा भी जो ले वो आजादी की आस थी व्यथित था ये मन मेरा किस बात की दरकार थी #Freedom #poem #Shayari