हम नदी के दो किनारे एक तुम हो दुजा संग हमारे मिलन की आस में धरा के छोर तक चलेंगे, तुम होगी सामने हमारे और मैं सामने तुम्हारे मिट्टी का एक ढेला उस किनारे से घोलो और बढ़ने दो नदी का आवेग थोड़ा, ताकि घुलकर मिट्टी आये नदी के इस छोर तक मैं हथेलियों में सजा उसे माथे से अपने लगा लूँ। मैं नदी के हाँथ भेजूँ घास का हरा तिनका लेकिन, प्रवाह प्रचंड धकेले इसे मेरे ही छोर पर निराश ना हो, नदी सौंपेगी इसको तुमको तुम्हारे छोर पर उठा तिनके को तुम अपने जुड़े में सजा लो। हम मिलते रहेंगे यूँही समय अनंत तक नदी के आदि से और नदी के अंत तक, तुम्हारे किनारे के मिट्टी को नदी में घुल जाने तक धारा के खोने औ तिनकों के सुख जाने तक । चाह सागर में मिलन की बिल्कुल ही व्यर्थ है, क्योंकि न होगी नदी, न वो घुली मिट्टी, ना ही होगी कोई धारा ना होंगे किनारे, न वो तिनके बेचारे औ अस्तित्व ना होगा हमारा चाह मेरी एक ही हम हों सदा यूँही किनारे तुम रहो सामने मेरे और मैं सामने तुम्हारे। ©M Sunil samrat नदी के किनारे