White छूटते क्रिकेट का रंज ओ दर्द लाता है, बचपना भी जाने कैसे छूट जाता है। लड़के जिनके संग हंसी में खो गई थीं राहें, ज़िंदगी का जाल एक दिन सबको फँसाता है। थी ज़मीं मैदान की और आसमान अपना, अब वो ख़्वाब आँखों में ही सिमट जाता है। जिम्मेदारियों का बोझ ढोते-ढोते हम बड़े हो गए अब खुद से ही अपना बचपन जी चुराता है। वो गुलेल, वो पतंगें, खेल के जो साथी, हर क़दम पे दिल उन्हें फिर से बुलाता है। बचपन की कसक ये दिल से जाती ही नहीं, वो फ़िज़ा, वो बेफिक्री फिर कौन पाता है । समंदर अब भी गुम हैं चंद सवालातों में हर जेहन में वो ख़्याल भला किसके आता है राजीव ©samandar Speaks #good_night