साज़ सँवर के भूषण पहने, विचर रहे बहु लोग । पृथ्वी प्रकाश से हीन, ये भागें पीछे अणिमा भोग ।। वृत्ति तामसी रूपी काले, मेघ गगन घर हारें । सूर्य पुकारें सज्जन जन, भर नेत्र अश्रु के धारे ।। सूर्य कहे रश्मि से, संकट में है स्वजन अजान । फैला दे निज कृति नवीन, भर दे हर घट में प्राण ।। जग है तेरा ऋणी, मातृ की संज्ञा तूने पाई है । तभी जगत ने उषा काल, संध्या की महिमा गाई है ।। "सूर्य की रश्मि" एक अद्भुत मातृत्व से पूर्ण कविता इस कविता में रश्मि बरनवाल "कृति" जी के नाम में अंकित शब्दों का प्रयोग किया गया है एवं इसमें उनके पूर्व के Quote के भावों को भी समवायिता प्रदान की गई है। इस अद्भुत गाथा की प्रेरणास्त्रोत बनने के उपलक्ष्य में मैं कवियित्री रश्मि जी को हृदय से आभार प्रकट करता हूँ। नमस्तुभ्यम्