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मेरे सिरहाने पड़ी तकिए के जैसी मेरी बेबाक सूझती आं

मेरे सिरहाने पड़ी तकिए के जैसी
मेरी बेबाक सूझती आंखों की सीप की जैसी
मेरी नादान कोशिशों से मेरी तनहाई भी मेरी जैसी
कभी मेरी भीगी रूह मुझी से सवाल करती है
तो कभी आईने के सामने खड़े होकर मुझी पर हँस देती है
क्या इसे अपना ही एक रूप समझू ऐ खुदा मेरे
या चुप हुई मासूम खिलखिलाती बदमाशी 
शायद यही गुपचुप शैतानी आज भी खुश रखे हुए है
मेरे रोम - रोम में बस उल्लास भरे हुए है
जब भी मन उदास होवे है 
यही बावरा मन चंचल बनजावे है
एक नई ऊर्जा तन- मन में दीप सा प्रज्वलित कर देवे है।।
यही दीप हर ओर रोशनी से अंधकार को उज्ज्वल कर देवे है
उज्ज्वल कर देवे है।।

©Sakshi Tomar
  Inside Out#Kuchbatein✍️
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Sakshi Tomar

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