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रेज़ां रेज़ां हैं ख़ुवाब आंखो में कैसे कहदूं के ग़म न

रेज़ां रेज़ां हैं ख़ुवाब आंखो में 
कैसे कहदूं के ग़म नहीं होता
कोई शिक्वा नहीं मगर मौला
 क्या करूं दर्द कम नहीं होता 

फैज़ अहमद फैज़
रेज़ां रेज़ां हैं ख़ुवाब आंखो में 
कैसे कहदूं के ग़म नहीं होता
कोई शिक्वा नहीं मगर मौला
 क्या करूं दर्द कम नहीं होता 

फैज़ अहमद फैज़