एक आम दिन सा गुजर गया कल का वो पहचाना दिन... कितने बारूद से बुझा था, कितने तेजाब में डूबा था, उजड़ने को तैयार महफ़िल था, एक धूर्त, काला, द्वेषी दिल था, जाने कितना आग था, जाने कैसा दुर्भाग्य था, रिक्त बीत जाने का वैराग्य था, कितनी बोझिलता, कितना भारीपन था, सौ सीकड़ों का बंधन, मृत्युतुल्य दुर्गंजन था पर बड़ी मासूमियत से गुजर गया, एक बड़े एहसान सा उतर गया। बड़ा बदनाम हो गुजरता रहा पर कल आम हादसे सा मैं उबर गया, एक आम दिन सा गुजर गया कल का वो पहचाना दिन। 2 जून जाना पहचाना दिन।