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ग़ज़ल - कल-आजकल गुज़रे लम्हों की बात किए जाते हैं।

ग़ज़ल - कल-आजकल

गुज़रे लम्हों की  बात किए जाते हैं।
बीते हुए को  हम भूल नहीं पाते हैं।

ज़िक्र तो  करते हैं राधा-कृष्ण का!
हक़ीक़त में तो कंस नज़र आते हैं।

कभी तो पर्दानशीं  इश्क़ होता था !
अब सरेराह आशिक़ मिल जाते हैं।

जब बन आती  है कोई बात ख़ुद पे!
इक पल में 'डिस्पोजल' हो जाते हैं।

क़िस्से तो कहते हैं लैला-मजनूं के!
ख़ुद मौहब्बत में सैय्याद हो जाते हैं।

दो तरह के लोग द्विअर्थी बात करते!
'पंछी' कौन सही है समझ न आते हैं। #कोराकाग़ज़  #ज़श्न_ए_इश्क़ #collabwithकोराकाग़ज़  #पाठकपुराण 
:
ग़ज़ल - कल-आजकल

गुज़रे लम्हों की  बात किए जाते हैं।
बीते हुए को  हम भूल नहीं पाते हैं।

ज़िक्र तो  करते हैं राधा-कृष्ण का!
ग़ज़ल - कल-आजकल

गुज़रे लम्हों की  बात किए जाते हैं।
बीते हुए को  हम भूल नहीं पाते हैं।

ज़िक्र तो  करते हैं राधा-कृष्ण का!
हक़ीक़त में तो कंस नज़र आते हैं।

कभी तो पर्दानशीं  इश्क़ होता था !
अब सरेराह आशिक़ मिल जाते हैं।

जब बन आती  है कोई बात ख़ुद पे!
इक पल में 'डिस्पोजल' हो जाते हैं।

क़िस्से तो कहते हैं लैला-मजनूं के!
ख़ुद मौहब्बत में सैय्याद हो जाते हैं।

दो तरह के लोग द्विअर्थी बात करते!
'पंछी' कौन सही है समझ न आते हैं। #कोराकाग़ज़  #ज़श्न_ए_इश्क़ #collabwithकोराकाग़ज़  #पाठकपुराण 
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ग़ज़ल - कल-आजकल

गुज़रे लम्हों की  बात किए जाते हैं।
बीते हुए को  हम भूल नहीं पाते हैं।

ज़िक्र तो  करते हैं राधा-कृष्ण का!