ग़ज़ल - कल-आजकल गुज़रे लम्हों की बात किए जाते हैं। बीते हुए को हम भूल नहीं पाते हैं। ज़िक्र तो करते हैं राधा-कृष्ण का! हक़ीक़त में तो कंस नज़र आते हैं। कभी तो पर्दानशीं इश्क़ होता था ! अब सरेराह आशिक़ मिल जाते हैं। जब बन आती है कोई बात ख़ुद पे! इक पल में 'डिस्पोजल' हो जाते हैं। क़िस्से तो कहते हैं लैला-मजनूं के! ख़ुद मौहब्बत में सैय्याद हो जाते हैं। दो तरह के लोग द्विअर्थी बात करते! 'पंछी' कौन सही है समझ न आते हैं। #कोराकाग़ज़ #ज़श्न_ए_इश्क़ #collabwithकोराकाग़ज़ #पाठकपुराण : ग़ज़ल - कल-आजकल गुज़रे लम्हों की बात किए जाते हैं। बीते हुए को हम भूल नहीं पाते हैं। ज़िक्र तो करते हैं राधा-कृष्ण का!