संध्या औए शाम (Part-2)
संध्या घर के आंगन में बैठी सूरज को ढलते देखती है और सोचती है वो भी ज़िन्दगी के उसी पहर में है जब वो कभी भी ढल सकती है। पचपन की उमर, हां बचपन से कोसों दूर। उम्र का ख़्याल संध्या को सताने भी लगता है और सुकून भी देता है क्योंकि मौत सारे दर्द समेंट लेती है।
और फिर माज़ी में बिछड़े अपने पति की याद में संध्या दो आंसू बहाने लगती है जैसे उसे याद किया बगैर एक पूरा दिन निकाल दिया तो ज़माना उसे बेगैरत कहेगा। सुबह उठते ही संध्या ज़िन्दगी को कोसने लगती है और सोचती है कि कितना सही कहा था उस चाय वाले ने। संध्या फिर उसकी दुकान पर चली जाती है। "एक कप चाय मिलेगी", संध्या धीमी आवाज़ में कहती है। आप तो ऐसे मांग रही है जैसे पान की दुकान से सिगरेट मांग रही हो, शाम मुस्कुराते हुए कहता है। जी ज़रूर मिलेगी, ये उसी की दुकान है, शाम संध्या को विश्वास दिलाते हुए कहता है। "ये चाय भी बोहत ज़ालिम होती है,देर रात तक जगाती है और हिज्र के पूरे मज़े देती है, शाम चायपत्ती डालते हुए कहता है। और फिर ये हिज्र का ज़ायका अच्छा लगने लगता है," संध्या शाम के जवाब में कहती है"। शाम कुछ देर खामोश हो जाता है और संध्या अपने मुँह से निकले शब्दों पर शर्मिंदा महसूस करती है और सोचती है कि हिज्र का ज़ायका कैसा होता है? उसकी सारी शर्मिंदगी चली जाती है जब शाम उसके हाथ में कप थमाते हुए कहता है "ये पीजिये हिज्र के ज़ायकों वाली चाय"। #sandhyaaurshaam#yqbaba#yqdidi