21वीं सदी का ये भारत पिछले 70 सालों से चुनाव देखते आ रहा है। दोनों बड़ी पार्टियों के घोषणा पत्र अगर हम ध्यान से पढ़ें तो पिछली बार के घोषणापत्र जैसे ही हैं और इनमें नीतिगत कोई अंतर नहीं निकलेगा यह तो बस रस्म अदायगी बनकर रह गई थी । हर 5 साल बाद हमने एक जैसे ही घोषणा पत्र सुने थे। क्या यही हमारे लोकतंत्र की अवधारणा थी? देश के ज्वलंत मुद्दों पर अपनी चर्चा किए बिना ही नेतृत्व सामने वाली पार्टी पर प्रहार शुरू करता रहा। बेरोजगारी, शिक्षा, चिकित्सा, पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया और भ्रष्टाचार बढ़ाकर आतंकवाद को पनपाते रहे। ऊपर से वंशवाद जातिवाद को सभी ने हवा दी। जातिवाद को खत्म कर आरक्षण रखना चाहते हैं यह तो आश्चर्य ही है । 💕🙏#सुप्रभातम💕🙏 : मुझे तो लगता है कि नेताओं की कसरत मात्र कुर्सी हथियाने की ही रही। : बोफोर्स, सत्यम, सवाल के बदले धन, महिला आरक्षण, पेयजल आदि मुद्दे गायब रहे। : काल का एक ऐसा अंश आया मानो कि लगता था लोकतंत्र ध्वस्त हो चला है या भारतीय दंड संहिता ने समर्पण कर दिया हो । स्वतंत्रता के झंडे के नीचे लोग अपने ही प्रदेश में कैद होकर रह गए थे। दूसरा कोई देश होता तो फंसे हुए लोगों को निकालने की व्यवस्था होती, खाद्य सामग्री और दवाएं उपलब्ध कराई जाती, बच्चों को परीक्षा केंद्र तक पहुंचाने की व्यवस्था की जाती। यहां तो कुछ भी नहीं हुआ। मानो सरकार ने स्वेच्छा से समर्पण कर दिया हो। हिंसा के उस दौर में न किसी पर राजद्रोह का मुकदमा चला, न सरकारी संपत्ति के नुकसान का। पुलिस खुद नदारद थी। रक्षा की आवश्यकता पर रक्षक ही भाग खड़े हों और किसी को शर्म तक न आए।