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क्या अपना मिलना जरूरी था मैंने सोचा है दो-चार

 क्या अपना मिलना जरूरी था 


 मैंने सोचा है दो-चार दफा
क्या अपना मिलना जरूरी था 
जिस दिल में शाम थी चार पहर 
वहां धूप का निकलना जरूरी था ?

आंखों के सूने दरख़्तों पर
क्यूं बैठे परिन्दे ख्वाबों के 
जो शाख़ थी गुमसम बरसों से 
क्या उसका हिलना ज़रूरी था

मैंने सोचा है दो-चार दफा़
क्या अपना मिलना ज़रूरी था !

                  - मनोज 'मुंतशिर'

©Ruchi Baria
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