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हवा में पतंगे, उड़ाते रहे है, जो घर आसमां में

हवा  में   पतंगे, उड़ाते  रहे  है,
जो घर आसमां में,बनाते रहे है।

गुनाहों की चादर है मैली की मैली।
पहन कर वो खादी, छिपाते  रहे है।

जो झंडा उठाकर,खबर बेच देते,
वतन को वो मेरे गिराते रहे है।

लगा माथ टीका,बने हैं पुजारी,
दुकानें वो अपनी चलाते रहे है।

ये सत्ता ये मजहब, हुई  ठेकेदारी,
सदा  रौब अपना, जमाते  रहे है।

जो कल था नहीं आज होगा न कल भी,
दफन वक़्त मिट्टी समाते रहे है।

          संजीव निगम "अनाम" #खादी
हवा  में   पतंगे, उड़ाते  रहे  है,
जो घर आसमां में,बनाते रहे है।

गुनाहों की चादर है मैली की मैली।
पहन कर वो खादी, छिपाते  रहे है।

जो झंडा उठाकर,खबर बेच देते,
वतन को वो मेरे गिराते रहे है।

लगा माथ टीका,बने हैं पुजारी,
दुकानें वो अपनी चलाते रहे है।

ये सत्ता ये मजहब, हुई  ठेकेदारी,
सदा  रौब अपना, जमाते  रहे है।

जो कल था नहीं आज होगा न कल भी,
दफन वक़्त मिट्टी समाते रहे है।

          संजीव निगम "अनाम" #खादी