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समाज, दीपावली और पर्यावरण दीपावली विशेष भारतीय

 समाज, दीपावली और पर्यावरण  

दीपावली विशेष भारतीय जन मानस की स्मृतियों में रचा-बसा है कि दीपावली के ही दिन भगवान राम लंका विजय कर अयोध्या लौटे थे। 
उनकी अयोध्या वापसी पर नगरवासियों ने ख़ुशियाँ मनाई थीं और रात्रि में पूरे नगर को दीपों से सजाया था। अयोध्या वापसी को चिरस्थायी बनाने के लिये हर साल दीवाली मनाई जाती है। रामायण काल से यह प्रथा चली आ रही है। इसके अलावा, लगभग पूरे देश में रामलीला का आयोजन होता है। लोग उसके रंग में रंग जाते हैं। दशहरे के दिन रावण, मेघनाथ और कुम्भकर्ण का वध आयोजन होता है। लोग बड़ीमात्रा में इस उत्सव में हिस्सेदारी करते हैं। लोगों को बधाई देते हैं और असत्य पर सत्य की जीत का उत्सव मनाते हैं। ग़ौरतलब है कि भारत में भरपूर बरसात के सूचक उत्तरा नक्षत्र (12 सितम्बर से 22 सितम्बर) की विदाई के साथ त्योहारों यथा हरितालिका, ऋषि पंचमी, राधाष्टमी, डोल ग्यारस, अनन्त चतुर्दशी, नवरात्रि उत्सव, विजयादशमी, शरदपूर्णिमा और फिर दीपावली का सिलसिला प्रारम्भ होता है। लगता है, उत्सवों और त्योहारों का यह सिलसिला - महज संयोग नहीं है। प्रतीत होता है मानों यह परम्परागत कृषक समाज द्वारा मनाया जाने वाला खरीफ उत्सव है। इसके अन्तर्गत दीपावली पर लक्ष्मी पूजन होता है। फिर गोवर्धन पूजा। उसके बाद,धन-धान्य और मिष्ठानों की महक बिखेरते अन्नकूट का आयोजन होता है। लगता है सभी उत्सव कल-कल करती नदियों और अनाज उगाती रत्नगर्भा धरती जैसे प्राकृतिक संसाधनों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिये मनाए जाते हैं। ये आस्था और उत्सव के विविध रंग हैं जिन्हें भारतीय समाज ने महापुरुषों की कथाओं से जोड़कर तथा धार्मिक संस्कारों में ढालकर जीवनशैली का हिस्सा बनाया है।
कुछ लोग दीपावली पर जलाए जाने वाले दियों की भूमिका को दूसरे नजरिए से देखते हैं। उनकी मान्यता है कि दीपावली का उत्सव, बरसाती कीट-पतंगों से मुक्ति दिलाने का आयोजन है इसलिये हर घर में तीन से चार दिन तक, अधिक-से-अधिक दीये जलाये जाते हैं। विचार, मान्यताएँ तथा लोक गाथाएँ अनेक हो सकती हैं पर यह निर्विवाद है कि हरसाल दीपों का त्योहार पूरी श्रद्धा तथा धूमधाम से मनाया जाता है। मानवीय प्रवृत्ति अदभुत है। उसने, हर दिन कुछ नया और बेहतर करने की दृष्टि से दीपावली उत्सव को भव्यता से जोड़ा। इस क्रम में सबसे पहले दीपों की संख्या बढ़ी होगी। कालान्तर में जब बारूद की खोज हुई तो मानवीय प्रज्ञा ने दीपोत्सव में आतिशबाजी को जोड़ा। रसायनशास्त्र ने आतिशबाजी में मनभावन रंग भरे और उसे आवाज दी। पटाखे बनना प्रारम्भ हुआ और उनमें विविधता आई। विविधता से आकर्षण उपजा। उसका उपयोग, समृद्धि दर्शाने का जरिया बना। मौजूदा बाजार उनसे पटा पड़ा है। दूसरे देश, पटाखों के निर्माण में आर्थिक समृद्धि और रोज़गार के अवसर देख रहे हैं। पटाखों की लोकप्रियता और सामाजिक स्वीकार्यता ने उन्हें विवाह समारोहों और ख़ुशियों के इज़हार का प्रभावशाली जरिया बना दिया है। अब चर्चा फायदे नुकसान की। हर साल दीपावली पर करोड़ों रुपयों के पटाखों का उपयोग होता है। यह सिलसिला कई दिन तक चलता है। कुछ लोग इसे फिजूलखर्ची मानते हैं तो कुछ उसे परम्परा से जोड़कर देखते हैं। पटाखों से बसाहटों, व्यावसायिक, औद्योगिक और ग्रामीण इलाकों की हवा में तांबा, कैलशियम, गंधक, एल्युमीनियम और बेरियम प्रदूषण फैलाते हैं। उल्लेखित धातुओं के अंश कोहरे के साथ मिलकर अनेक दिनों तक हवा में बने रहते हैं। उनके हवा में मौजूद रहने के कारण प्रदूषण का स्तर कुछ समय के लिये काफी बढ़ जाता है। विदित है कि विभिन्न कारणों से देश के अनेक इलाकों में वायु प्रदूषण सुरक्षित सीमा से अधिक है। ऐसे में पटाखों से होने वाला प्रदूषण, भले ही अस्थायी प्रकृति का होता है, उसे और अधिक हानिकारक बना देता है। पटाखों के चलाने से स्थानीय मौसम प्रभावित होता है तथा निम्न बीमारियों की सम्भावना बनती और बढ़ती है।

घटक - सेहत पर प्रभाव। 
तांबा - श्वास तंत्र में जलन।
 समाज, दीपावली और पर्यावरण  

दीपावली विशेष भारतीय जन मानस की स्मृतियों में रचा-बसा है कि दीपावली के ही दिन भगवान राम लंका विजय कर अयोध्या लौटे थे। 
उनकी अयोध्या वापसी पर नगरवासियों ने ख़ुशियाँ मनाई थीं और रात्रि में पूरे नगर को दीपों से सजाया था। अयोध्या वापसी को चिरस्थायी बनाने के लिये हर साल दीवाली मनाई जाती है। रामायण काल से यह प्रथा चली आ रही है। इसके अलावा, लगभग पूरे देश में रामलीला का आयोजन होता है। लोग उसके रंग में रंग जाते हैं। दशहरे के दिन रावण, मेघनाथ और कुम्भकर्ण का वध आयोजन होता है। लोग बड़ीमात्रा में इस उत्सव में हिस्सेदारी करते हैं। लोगों को बधाई देते हैं और असत्य पर सत्य की जीत का उत्सव मनाते हैं। ग़ौरतलब है कि भारत में भरपूर बरसात के सूचक उत्तरा नक्षत्र (12 सितम्बर से 22 सितम्बर) की विदाई के साथ त्योहारों यथा हरितालिका, ऋषि पंचमी, राधाष्टमी, डोल ग्यारस, अनन्त चतुर्दशी, नवरात्रि उत्सव, विजयादशमी, शरदपूर्णिमा और फिर दीपावली का सिलसिला प्रारम्भ होता है। लगता है, उत्सवों और त्योहारों का यह सिलसिला - महज संयोग नहीं है। प्रतीत होता है मानों यह परम्परागत कृषक समाज द्वारा मनाया जाने वाला खरीफ उत्सव है। इसके अन्तर्गत दीपावली पर लक्ष्मी पूजन होता है। फिर गोवर्धन पूजा। उसके बाद,धन-धान्य और मिष्ठानों की महक बिखेरते अन्नकूट का आयोजन होता है। लगता है सभी उत्सव कल-कल करती नदियों और अनाज उगाती रत्नगर्भा धरती जैसे प्राकृतिक संसाधनों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिये मनाए जाते हैं। ये आस्था और उत्सव के विविध रंग हैं जिन्हें भारतीय समाज ने महापुरुषों की कथाओं से जोड़कर तथा धार्मिक संस्कारों में ढालकर जीवनशैली का हिस्सा बनाया है।
कुछ लोग दीपावली पर जलाए जाने वाले दियों की भूमिका को दूसरे नजरिए से देखते हैं। उनकी मान्यता है कि दीपावली का उत्सव, बरसाती कीट-पतंगों से मुक्ति दिलाने का आयोजन है इसलिये हर घर में तीन से चार दिन तक, अधिक-से-अधिक दीये जलाये जाते हैं। विचार, मान्यताएँ तथा लोक गाथाएँ अनेक हो सकती हैं पर यह निर्विवाद है कि हरसाल दीपों का त्योहार पूरी श्रद्धा तथा धूमधाम से मनाया जाता है। मानवीय प्रवृत्ति अदभुत है। उसने, हर दिन कुछ नया और बेहतर करने की दृष्टि से दीपावली उत्सव को भव्यता से जोड़ा। इस क्रम में सबसे पहले दीपों की संख्या बढ़ी होगी। कालान्तर में जब बारूद की खोज हुई तो मानवीय प्रज्ञा ने दीपोत्सव में आतिशबाजी को जोड़ा। रसायनशास्त्र ने आतिशबाजी में मनभावन रंग भरे और उसे आवाज दी। पटाखे बनना प्रारम्भ हुआ और उनमें विविधता आई। विविधता से आकर्षण उपजा। उसका उपयोग, समृद्धि दर्शाने का जरिया बना। मौजूदा बाजार उनसे पटा पड़ा है। दूसरे देश, पटाखों के निर्माण में आर्थिक समृद्धि और रोज़गार के अवसर देख रहे हैं। पटाखों की लोकप्रियता और सामाजिक स्वीकार्यता ने उन्हें विवाह समारोहों और ख़ुशियों के इज़हार का प्रभावशाली जरिया बना दिया है। अब चर्चा फायदे नुकसान की। हर साल दीपावली पर करोड़ों रुपयों के पटाखों का उपयोग होता है। यह सिलसिला कई दिन तक चलता है। कुछ लोग इसे फिजूलखर्ची मानते हैं तो कुछ उसे परम्परा से जोड़कर देखते हैं। पटाखों से बसाहटों, व्यावसायिक, औद्योगिक और ग्रामीण इलाकों की हवा में तांबा, कैलशियम, गंधक, एल्युमीनियम और बेरियम प्रदूषण फैलाते हैं। उल्लेखित धातुओं के अंश कोहरे के साथ मिलकर अनेक दिनों तक हवा में बने रहते हैं। उनके हवा में मौजूद रहने के कारण प्रदूषण का स्तर कुछ समय के लिये काफी बढ़ जाता है। विदित है कि विभिन्न कारणों से देश के अनेक इलाकों में वायु प्रदूषण सुरक्षित सीमा से अधिक है। ऐसे में पटाखों से होने वाला प्रदूषण, भले ही अस्थायी प्रकृति का होता है, उसे और अधिक हानिकारक बना देता है। पटाखों के चलाने से स्थानीय मौसम प्रभावित होता है तथा निम्न बीमारियों की सम्भावना बनती और बढ़ती है।

घटक - सेहत पर प्रभाव। 
तांबा - श्वास तंत्र में जलन।
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