एक नामुकम्मल दास्तां (भाग: द्वितीय) अनुशिर्षक में पढ़ें उसकी आवाज़ पहली बार सुनी थी रेडिओ पे। आवाज़ ऐसी तो नहीं थी, कि सुनते ही कोई भी फिदा हो जाए उस पे। पर कुछ तो था। शायद उसके बोलने का अंदाज। या फिर, उसकी बातें। या शायद उसके विचार। मन को मोह लिया था उसने पहली ही बार में। समझ ना आया था उस वक़्त, कि कैसे उस लम्हें को रोक लूँ, कैद कर लूँ उसकी आवाज़ को अपने दिल के सबसे महफूज़ कोने में, जिसे जब मन किया सुन लिया। एक बार, दो बार, बार-बार। वो कोई संचालक नहीं था अपितु एक श्रोता था बस, जो उस रेडिओ शो पर फ़ोन करता था, और अपने दिल की बात रेडिओ पे सुना जाता था। यूँ तो कई लोग फ़ोन करते थे और अपने बारे में बातें करते थे। कोई प्यार का रोना रोता, तो कोई अपने यार का। कोई अपनी पसंद नापसंद के बारे में बात करता तो कोई संचालक की तारीफों के पुल बाँध देता था। एक वो ही था जो सबसे अलग था। अलग कैसे? क्यूँकी वो कभी अपने बारे में बात ही नहीं करता था। वो तो बस दूसरों के बारे में ही बात करता था। किसी ने कुछ बुरा-भला कह दिया किसी को, या किसी को कोई मदद चाहिये, या अपने आस-पास की चीज़ों कौ देख कर कुछ सीखने मिले, तो ये सब वो उस रेडिओ के कार्यक्रम में आ के सुनाता था किसी किस्से-कहानी की तरह और फिर अंत में एक अच्छा विचार या प्रेरणादायक बात कह जाता था। अगर उसे कोई ध्यान से सुने ना तो बहुत कुछ सीख सकता था। सही कहूँ तो सिर्फ मैं ही नहीं, उस कार्यक्रम को सुनने वाला हर इंसान उसकी अच्छाई का दीवाना था और हर कोई उसे बहुत मानता था। अब ये 'वो'है कौन ये तो आप सब अच्छे से समझ गये होंगे। नहीं समझे, तो, चलिए मैं ही बता देती हूँ। ये वो है, जिनकी "एक नामुकम्मल दास्तां" को मैं आगे बढ़ा रही हूँ। और अब मैं कौन, ये सवाल भी आया ही होगा आपके मन में। और निश्चित तौर पर ज़वाब भी मिल गया होगा। पर फिर भी, चूंकि मैं खुद इस कहानी की पात्रा हूँ तो मेरा फर्ज़ बनता है की मैं अपना परिचय दूँ आप सबको। मैं वो हूँ, जिसे ये पागल अपनी 'जान' कहता है। क्यूँ कहता है ये तो पता है। पर मैं इस लायक नहीं हूँ, ये जानते हुए भी, मैं उसे रोकती नहीं हूँ। शायद अच्छा लगता है 'जान' सुनना उसके मूँह से। कभी किसी और ने कहा नहीं ना। शायद इसिलिए और प्यारा लगता है। पर तक़लीफ भी होती है। क्यूँ होती है? क्या उसके 'जान' कहने से होती है? या वो जान से ज्यादा मुझसे प्यार करता है इसिलिए होती है? या मैं उससे प्यार नहीं करती इसिलिए होती है? नहीं। नहीं। ये सच नहीं है, मैं उससे बे-इंतेहा प्यार करती हूँ। इतना प्यार, जितना तो शायद मैनें उस इन्सान से भी नहीं किया होगा, जिसके लिये मैनें जान देने की भी कोशिश थी। पर अगर मैं उससे प्यार करती हूँ, तो मैं क्यूँ उसका हाथ ना थाम पाई। क्यूँ मैनें किसी और से शादी की। क्यूँ मैं अपने प्यार और उसके साथ इंसाफ ना कर पाई। और ये बात आज तक मुझे सीने में फाँस बन कर चुभती है। ******************************** क्रमशः फिर कभी।