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पल्लव की डायरी किससे रूठूँ, किसे मनाना जग बीती अपन

पल्लव की डायरी
किससे रूठूँ, किसे मनाना
जग बीती अपनी बताना
सह लेती हूँ नखरे सबके
कियो बात आगे बढ़ाना
देखो सूरज चाँद के भी कद
कभी कभी घट जाते है
अमावस्या को काली राते
ग्रहण सूरज को लग जाते है
सताने वाले शैतानी प्रवर्ती के
मनोभाव उनके विकृत हो जाते है
उन्हें छेड़ कर,अपनी तौहीन कराना
सात्विकता को खोकर उन जैसा बन जाना
यही सोच कर मन शांत हो जाते है
                                               प्रवीण जैन पल्लव

©Praveen Jain "पल्लव"
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