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24 जुलाई/बलिदान-दिवस *नरसिंहगढ़ का शेर : कुंवर चैन

24 जुलाई/बलिदान-दिवस
*नरसिंहगढ़ का शेर : कुंवर चैनसिंह*

भारत की स्वतन्त्रता के लिए किसी एक परिवार, दल या क्षेत्र विशेष के लोगों ने ही बलिदान नहीं दिये। देश के कोने-कोने में ऐसे अनेक ज्ञात-अज्ञात वीर हुए हैं,जिन्होंने अंग्रेजों से युद्ध में मृत्यु तो स्वीकार की; पर पीछे हटना या सिर झुकाना स्वीकार नहीं किया। ऐसे ही एक बलिदानी वीर थे मध्य प्रदेश की नरसिंहगढ़ रियासत के राजकुमार कुँवर चैनसिंह।

व्यापार के नाम पर आये धूर्त अंग्रेजों ने जब छोटी रियासतों को हड़पना शुरू किया, तो इसके विरुद्ध अनेक स्थानों पर आवाज उठने लगी। राजा लोग समय-समय पर मिलकर इस खतरे पर विचार करते थे; पर ऐसे राजाओं को अंग्रेज और अधिक परेशान करते थे। उन्होंने हर राज्य में कुछ दरबारी खरीद लिये थे, जो उन्हें सब सूचना देते थे। नरसिंहगढ़ पर भी अंग्रेजों की गिद्ध दृष्टि थी। उन्होंने कुँवर चैनसिंह को उसे अंग्रेजों को सौंपने को कहा; पर चैनसिंह ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया।

अब अंग्रेजों ने आनन्दराव बख्शी और रूपराम वोहरा नामक दो मन्त्रियों को फोड़ लिया। एक बार इन्दौर के होल्कर राजा ने सब छोटे राजाओं की बैठक बुलाई। चैनसिंह भी उसमें गये थे। यह सूचना दोनों विश्वासघाती मन्त्रियों ने अंग्रेजों तक पहुँचा दी। उस समय जनरल मेंढाक ब्रिटिश शासन की ओर से राजनीतिक एजेण्ट नियुक्त था। उसने नाराज होकर चैनसिंह को सीहोर बुलाया। चैनसिंह अपने दो विश्वस्त साथियों हिम्मत खाँ और बहादुर खाँ के साथ उससे मिलने गये। ये दोनों सारंगपुर के पास ग्राम धनौरा निवासी सगे भाई थे। चलने से पूर्व चैनसिंह की माँ ने इन्हें राखी बाँधकर हर कीमत पर बेटे के साथ रहने की शपथ दिलायी। कुँवर का प्रिय कुत्ता शेरू भी साथ गया था।

जनरल मेंढाक चाहता था कि चैनसिंह पेंशन लेकर सपरिवार काशी रहें और राज्य में उत्पन्न होने वाली अफीम की आय पर अंग्रेजों का अधिकार रहे; पर वे किसी मूल्य पर इसके लिए तैयार नहीं हुए। इस प्रकार यह पहली भेंट निष्फल रही। कुछ दिन बाद जनरल मंेढाक ने चैनसिंह को सीहोर छावनी में बुलाया। इस बार उसने चैनसिंह और उनकी तलवारों की तारीफ करते हुए एक तलवार उनसे ले ली। इसके बाद उसने दूसरी तलवार की तारीफ करते हुए उसे भी लेना चाहा। चैनसिंह समझ गया कि जनरल उन्हें निःशस्त्र कर गिरफ्तार करना चाहता है। उन्होंने आव देखा न ताव,जनरल पर हमला कर दिया।

फिर क्या था, खुली लड़ाई होने लगी। जनरल तो तैयारी से आया था। पूरी सैनिक टुकड़ी उसके साथ थी; पर कुँवर चैनसिंह भी कम साहसी नहीं थे। उन्हें अपनी तलवार, परमेश्वर और माँ के आशीर्वाद पर अटल भरोसा था। दिये और तूफान के इस संग्राम में अनेक अंग्रेजों को यमलोक पहुँचा कर उन्होंने अपने दोनों साथियों तथा कुत्ते के साथ वीरगति पायी। यह घटना लोटनबाग, सीहोर छावनी में 24 जुलाई, 1824 को घटित हुई थी।

चैनसिंह के इस बलिदान की चर्चा घर-घर में फैल गयी। उन्हें अवतारी पुरुष मान कर आज भी ग्राम देवता के रूप में पूजा जाता है। घातक बीमारियों में लोग नरसिंहगढ़ के हारबाग में बनी इनकी समाधि पर आकर एक कंकड़ रखकर मनौती मानते हैं। इस प्रकार कुँवर चैनसिंह ने बलिदान देकर भारतीय स्वतन्त्रता के इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवा लिया। #इतिहास #जीवनी #कुंवर #महाराज 

#InspireThroughWriting
24 जुलाई/बलिदान-दिवस
*नरसिंहगढ़ का शेर : कुंवर चैनसिंह*

भारत की स्वतन्त्रता के लिए किसी एक परिवार, दल या क्षेत्र विशेष के लोगों ने ही बलिदान नहीं दिये। देश के कोने-कोने में ऐसे अनेक ज्ञात-अज्ञात वीर हुए हैं,जिन्होंने अंग्रेजों से युद्ध में मृत्यु तो स्वीकार की; पर पीछे हटना या सिर झुकाना स्वीकार नहीं किया। ऐसे ही एक बलिदानी वीर थे मध्य प्रदेश की नरसिंहगढ़ रियासत के राजकुमार कुँवर चैनसिंह।

व्यापार के नाम पर आये धूर्त अंग्रेजों ने जब छोटी रियासतों को हड़पना शुरू किया, तो इसके विरुद्ध अनेक स्थानों पर आवाज उठने लगी। राजा लोग समय-समय पर मिलकर इस खतरे पर विचार करते थे; पर ऐसे राजाओं को अंग्रेज और अधिक परेशान करते थे। उन्होंने हर राज्य में कुछ दरबारी खरीद लिये थे, जो उन्हें सब सूचना देते थे। नरसिंहगढ़ पर भी अंग्रेजों की गिद्ध दृष्टि थी। उन्होंने कुँवर चैनसिंह को उसे अंग्रेजों को सौंपने को कहा; पर चैनसिंह ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया।

अब अंग्रेजों ने आनन्दराव बख्शी और रूपराम वोहरा नामक दो मन्त्रियों को फोड़ लिया। एक बार इन्दौर के होल्कर राजा ने सब छोटे राजाओं की बैठक बुलाई। चैनसिंह भी उसमें गये थे। यह सूचना दोनों विश्वासघाती मन्त्रियों ने अंग्रेजों तक पहुँचा दी। उस समय जनरल मेंढाक ब्रिटिश शासन की ओर से राजनीतिक एजेण्ट नियुक्त था। उसने नाराज होकर चैनसिंह को सीहोर बुलाया। चैनसिंह अपने दो विश्वस्त साथियों हिम्मत खाँ और बहादुर खाँ के साथ उससे मिलने गये। ये दोनों सारंगपुर के पास ग्राम धनौरा निवासी सगे भाई थे। चलने से पूर्व चैनसिंह की माँ ने इन्हें राखी बाँधकर हर कीमत पर बेटे के साथ रहने की शपथ दिलायी। कुँवर का प्रिय कुत्ता शेरू भी साथ गया था।

जनरल मेंढाक चाहता था कि चैनसिंह पेंशन लेकर सपरिवार काशी रहें और राज्य में उत्पन्न होने वाली अफीम की आय पर अंग्रेजों का अधिकार रहे; पर वे किसी मूल्य पर इसके लिए तैयार नहीं हुए। इस प्रकार यह पहली भेंट निष्फल रही। कुछ दिन बाद जनरल मंेढाक ने चैनसिंह को सीहोर छावनी में बुलाया। इस बार उसने चैनसिंह और उनकी तलवारों की तारीफ करते हुए एक तलवार उनसे ले ली। इसके बाद उसने दूसरी तलवार की तारीफ करते हुए उसे भी लेना चाहा। चैनसिंह समझ गया कि जनरल उन्हें निःशस्त्र कर गिरफ्तार करना चाहता है। उन्होंने आव देखा न ताव,जनरल पर हमला कर दिया।

फिर क्या था, खुली लड़ाई होने लगी। जनरल तो तैयारी से आया था। पूरी सैनिक टुकड़ी उसके साथ थी; पर कुँवर चैनसिंह भी कम साहसी नहीं थे। उन्हें अपनी तलवार, परमेश्वर और माँ के आशीर्वाद पर अटल भरोसा था। दिये और तूफान के इस संग्राम में अनेक अंग्रेजों को यमलोक पहुँचा कर उन्होंने अपने दोनों साथियों तथा कुत्ते के साथ वीरगति पायी। यह घटना लोटनबाग, सीहोर छावनी में 24 जुलाई, 1824 को घटित हुई थी।

चैनसिंह के इस बलिदान की चर्चा घर-घर में फैल गयी। उन्हें अवतारी पुरुष मान कर आज भी ग्राम देवता के रूप में पूजा जाता है। घातक बीमारियों में लोग नरसिंहगढ़ के हारबाग में बनी इनकी समाधि पर आकर एक कंकड़ रखकर मनौती मानते हैं। इस प्रकार कुँवर चैनसिंह ने बलिदान देकर भारतीय स्वतन्त्रता के इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवा लिया। #इतिहास #जीवनी #कुंवर #महाराज 

#InspireThroughWriting