सब लक्क़ीरों का खेल है दोस्त, आजकल जीने को दर दर तक एड़ियां रगड़ना पड़ता है कुछ मजबूरियां हूँगी इस शहर की, जो गाँव से लौटे अब अँधेरे में भी नंगे पांव ही दौड़ना पड़ता है भाई भाई की सुनता कहाँ ईमानदारी के इस खेल में हैरान भूखी आंखों को, अपनों को निचोड़ना पड़ता है आग लगी है घर घर मे, गलियों में, बज़ारों में गैरों की नन्नी सांसो को, यों ही मरोड़ना पड़ता है मुश्किल हो चला ईमानदारी का चोला अब जमीरों को जिंदा करने को, ताकत से झंजोडन पडता है shehron ja zeevan or ganv ki hawa