बंजारों जैसे ख्वाब है कहीं ठहरते ही नहीं मन यह बेचारा मांगता हर स्वाद हर रंग हर रूप भटकता अच्छे की तलाश में होकर विमुख ना औकात का हिसाब रखता ना जितनी चादर उतने पैर पसारने का संतोष रखता प्यास है कुछ कर गुजर जाने की बेहतर से बेहतर पाने की