जिसकी आरजू में एक उमर निकला किसी और आँगन में वो क़मर निकला! यूँ तो उसे रहती है ख़बर जहान की बस मेरे जज्बातों से ही बेख़बर निकला! एक मुद्दत हुए प्यासा है शहर मेरा के कुछ दूर से बादल बरस कर निकला! हर बार रख आया दिल तेरे कूचे में जब भी तफरीह को मैं उधर निकला! रिवायत है दिल के बदले दिल देने की पर तूने जो दिया वो पत्थर निकला! बड़े अरमान से खोले थे लिफ़ाफ़े मैंने तवक़्क़ो फूल की थी, खंज़र निकला! वो ख़्वाब जो आते नहीं रातों में कभी उन्हें ढूंढते हुए आज फ़िर सहर निकला! पलकों के पीछे था तो बस एक बूंद था बहने क्या लगा पूरा समंदर निकला! जिस फसाने को मैंने जीस्त समझा वो तो एक लम्हे सा मुक्तसर निकला! संगसार क्या हुआ एक आशिक़ आज हस्र देखने को है सारा शहर निकला! क्या बीती होगी उस पर वही जाने रुस्वा हो महफ़िल से यूँ शजर निकला! #शायरीबुक्स #shayaribooks ©SHAYARI BOOKS जिसकी आरजू में एक उमर निकला किसी और आँगन में वो क़मर निकला! यूँ तो उसे रहती है ख़बर जहान की बस मेरे जज्बातों से ही बेख़बर निकला! एक मुद्दत हुए प्यासा है शहर मेरा के कुछ दूर से बादल बरस कर निकला!