शक की दीवारें खड़ी हुई इश्क़ के दरम्यान, निभाए तो भी हम रिश्ता कैसे निभाए भला। किरचों में बिखर गया वजूद मिरा पल भर में, कब हुए हैं हम क़तरा-क़तरा पता ही न चला। सफाइयाँ भी बेबसी की बैसाखी पकड़े हुए, मुझे शर्मिंदगी की जंजीरों में ही जकड़े हुए। न साबित कर सके मेरी रूह की पाकीज़गी, मन के तार न जाने से क्यों है इतने अकड़े हुए। शक की दीवार में दफ़न जो ख़ुलूस हैं हो गया। हर मरासिम एक जिंदा लाश सा बन है गया। टूट गया यकीन अब किस तरह समेट सकूँ मैं, जिस को कहते थे हमनवां पल में बेगाना हो गया। तोड़ कर दीवार शक की मुझे इश्क़ का सुकून दो। ज़िंदगी है चंद पल की उनको तुम अब सँवार लो। तन्हाई को खुद का हमसफ़र न बनाओ जानकर, इस सफ़र में तुम अपने हमसफ़र का साथ दो। ♥️ Challenge-941 #collabwithकोराकाग़ज़ ♥️ इस पोस्ट को हाईलाइट करना न भूलें! 😊 ♥️ दो विजेता होंगे और दोनों विजेताओं की रचनाओं को रोज़ बुके (Rose Bouquet) उपहार स्वरूप दिया जाएगा। ♥️ रचना लिखने के बाद इस पोस्ट पर Done काॅमेंट करें।