ज्ञान का आविर्भाव तभी संभव है जब बुद्धि उसे निःस्वार्थ भाव से स्वीकार करे। यदि असहमति उत्पन्न होती है तो वो विचारों में भेद कर क्रोध, क्रोध से मति भ्रंश एवं मति भ्रंश से अहंकार और फिर स्वतः विनाश का कारण बनता है। जिस प्रकार यदि हम तर्क करते समय उसका ज्ञान रखते हैं अथवा कुछ व्यक्त करने में, तो उसे पूर्ण रूप से अपने विद्या में ज्ञान रखते हुए ग्रहण करते है उसी प्रकार हम एक घर में अंधकार मिटाने के लिए रोशनी का प्रयोग करते हैं। ऐसे में यदि नम्र भावना से यदि शांत मन से हाथ जोड़ सिर्फ सहमति से यदि कुछ उत्धृत कथन को सहमति प्रदान किया जाए तो इसका ये अर्थ नहीं कि वहां विद्या नही दिखाई गई या ज्ञान को संकुचित कर मौन रहकर कुछ उत्धृत नहीं किया गया। आवश्यकता केवल समझ की है कि आप आसानी से सीखें या मुश्किल से। वाक्यों का उद्धृत होना चाहे वो सरल हो या कठिन, उपयोगिता दोनो की एक सामान है। अहंकार ग्रसित अज्ञानता से संकीर्णता हो विचार विनाश ही होता है। यदि आप धर्म का अनुसरण ही नही सकते तो धर्म गुरु के वचनों के बखान को लिखकर दूसरों को सिखाने को क्या लाभ जब आप को खुद उन विचारों का मूल्यांकन हेतु किये गए कार्य के पर्यन्त अवगुणों का परित्याग संभव ही न हो तब... #आत्मबोध