अब कहाँ ऋतु ऋतु-सी आती हैं मन को पहले-सा भाव-विभोर करती हैं कब आया वसंत और चला गया किसी को कहाँ पता चलता है गुलशन हृदय को कब महकाता है अब तो बस कैलेण्डर ही 'चैत्र' से मिलवाता है...! आती है ग्रीष्म भी;लेकिन बूँद पसीने की कहाँ दिखती बन्द कमरों की ठंडक में गर्मी भी ठंडी हो जाती...! वर्षा ऋतु आती है पर पहले-सी नहीं तन और मन भीगता था वो बारिश अब नहीं कहीं बूँद-बूँद तो कहीं बाढ़-तूफान मन को प्रफुल्लित अब करती नहीं...! शरद् का चाँद अब कहाँ चाँदनी बिखराता है धूल-धुएँ के गुबार में कहीं खो-सा जाता है प्रेमी हृदयों की कविताओं में ही अब नज़र आता है...! हेमंत की वो कंप-कंपी अब कहाँ उतना कंपकंपाती है हाथ-पैरों का सुन्न हो जाना तो पुरानी बात लगती है जमती थी पौधों पर ओस 'बर्फ-सी' नहीं वो हेमंत अब हिम-सी...! शिशिर ऋतु अब फागुन में कहाँ फाग बन आती है नौजवानों की टोली तो कहीं नहीं अब दिखती है प्रेम-प्यार का राग-रंग अब फागुन की कहाँ पहचान रहा...! ऋतु आती और जाती हैं पर ... परिवर्तन कहाँ अब दिखता है घर की दीवार पर टंगा पंचाग ही ऋतु-परिवर्तन की सूचना देता है उसी में हमारे ज्ञान-चक्षु खुल जाते हैं ऋतु अब कहाँ आती और जाती हैं कुछ नहीं पता चलता है...! #ऋतुएँ #yqdidi #yqpoetry