वीर भोगे वसुंधरा हर रोज वो भोर के समय उठती। समीप ही सरोवर में नहा कर किले की औरतों संग शिव आराधना को चली जाती। घर से मंदिर तक के पथरीले रास्ते के दोनो और लगे मनोहर पौधों से पुष्पों को तोड़कर ईश्वरीय पूजा हेतु ले जाती थी। पर आज भोर से पहले ही उसकी नींद तेज चिंखो से टूट गई। प्रथम दृष्टया वो सोच भी न पाई पर जब खिड़की से झांका तब उस पथरीले मार्ग के रास्तों के फूल आज मुरझाए से रक्त से सने नजर आए ।।। रुदन जोरों पर था, घर से बाहर निकली तो औरतों का हुजूम उसे अपने साथ राजमहल की तलहटी की ओर ले गया । कुछ भी न ले आ पाई वो संग , बिंदी तो वही चिपकी ही रह गई रात को बिस्तर के पास के संदूक पर,मांग भी अधूरी ही भरी रही।।। तलहटी की ओर जाते जाते बीच आएं प्रांगण को उसने केसरिया रंग से सराबोर देखा , अब तो उसका बदन काटों तो खून न निकले, रूह तो जैसे कांप कर साथ छोड़ गई। बस एक ही ख्याल फिर बेहद तीक्ष्ण सा प्रियवर तुम किधर ,कहां, कैसे हो!!! कोई जवाब नही मन से ,ना किसी की उम्मीद से।