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वो झोपड़ी... ऊँची नीची पहाड़ियाँ जो हर मौसम में

वो झोपड़ी... 

 ऊँची नीची पहाड़ियाँ जो हर मौसम में अडिग रहती हैं मानो प्रकृति ने इन्हें प्रहरी के रूप में तैनात किया हो ।कोई हरी तो कोई सफेद चादर ओढ़े हुए। उन पर देवदार चीड़ और न जाने कितने औषधीय गुणों के पेड़ पौधे ऐसे ही टाँके गए हैं  जैसे सुहागन की चुनरी पर सितारे..पहाड़ियों से बहती हुई नदियाँ और झरने जैसे चुनरी से निकलते हुए धागे। उन्हीं पहाड़ों की तलहटी पर बसा हुआ था एक छोटा सा गाँव...एक सामान्य गाँव की तरह उसकी भी एक दिनचर्या थी बस भौगोलिक परिस्थितियाँ होने से थोड़ी सी भिन्न थी। खेती और उससे जुड़े कामकाज ही आय का जरिया थे।प्राकृतिक संसाधन ही जमा पूँजी थी।  उस गाँव के एक छोर पर एक छोटी सी झोपड़ी थी उस झोपड़ी में एक लड़का अपने माता-पिता के साथ रहता था मोहन नाम था उसका पर सब उसे मोहना कहते थे। साँवली सूरत और अपनी बातों से सबका मन मोह लेने वाला मोहना की रगों में नया खून बहता था। अपने पिता की छोटी सी दुकान, दुकान भी क्या थी वह झोपड़ी ही उनका घर और आय का साधन उस दुकान पर हमेशा एक आवाज आया करती थी खट खट की जिसमें मोहना जोर-जोर से हथौड़ी चलाया करता था ।लोहार थे मोहना के पिता।  झोपड़ी के एक  हिस्से में सारा दिन भट्टी जलती रहती थी जिसमें लोहा तपता रहता और दूसरे हिस्से गृहस्थी चलती थी। दोनों में एक समानता थी चोट दोनों तरफ बराबर लगती थी।
 भट्टी वाले हिस्से में बैठने की दो चौकियां थी जो ग्राहक के लिए थी वह काम करने वाले की चौकी से कुछ ऊँची थी, काम करने वाले की और ग्राहक की चौकी के बीच की ऊँचाइयों का जो अंतर था बस इतना ही अंतर होता है जातियों में।  बाहर से देखने में पता नहीं लगता मगर यह अंतर बहुत बड़ा होता है इसकी जड़ें बहुत दूर तक होती है।

 वहीं अपने पिता को  यह काम करता देख बड़ा हुआ था मोहना,धीरे-धीरे अपने पिता के साथ उसने लोहे की हर बारीकी सीख ली थी।  पढ़ने को खूब जी चाहता था मोहना का मगर स्कूल-कॉलेज यह सब बहुत दूर थे, जितना हो सका उसके पिता ने उसे पढ़ाया। हथौड़े के शोर के साथ बीच-बीच में एक और ध्वनि सुनाई पड़ती थी ,यह मोहना की माँ की आवाज थी जो लोकगीत गुनगुनाया करती  आँचलिक बोलियों की कोई  पुस्तक नहीं होती ना कोई डिक्शनरी। माँ दादी नानी यह सब चलती फिरती डिक्शनरी होती हैं। लोक गीतों के जरिए अपनी संस्कृति अपनी बोली अपनी भाषा को  दूसरी पीढ़ी तक पहुंँचाती हैं।पहाड़ दिखने में जितने ख़ूबसूरत होते हैं उतना ही कठिन होता है वहाँ का जीवन एक दिन में कोई भी इन पहाड़ों को नहीं जान पाया है और ना ही यह पहाड़ एक दिन में बनते हैं।वर्षों से खड़े हैं उसी जगह पर  बिना थके जाने कितनी पीढ़ियाँ, कितनी सभ्यताएँ देख ली है इन्होंने और आज मोहना की कहानी देख रहे थे, झोपड़ी में क्या घटित हो रहा था वहीं निगाहें किये थे। 

आम दिनों की तरह  मोहन आज भी गर्म लोहे पर हथौड़ा पीट रहा था  तभी किसी के आने की आहट हुई ।
वो झोपड़ी... 

 ऊँची नीची पहाड़ियाँ जो हर मौसम में अडिग रहती हैं मानो प्रकृति ने इन्हें प्रहरी के रूप में तैनात किया हो ।कोई हरी तो कोई सफेद चादर ओढ़े हुए। उन पर देवदार चीड़ और न जाने कितने औषधीय गुणों के पेड़ पौधे ऐसे ही टाँके गए हैं  जैसे सुहागन की चुनरी पर सितारे..पहाड़ियों से बहती हुई नदियाँ और झरने जैसे चुनरी से निकलते हुए धागे। उन्हीं पहाड़ों की तलहटी पर बसा हुआ था एक छोटा सा गाँव...एक सामान्य गाँव की तरह उसकी भी एक दिनचर्या थी बस भौगोलिक परिस्थितियाँ होने से थोड़ी सी भिन्न थी। खेती और उससे जुड़े कामकाज ही आय का जरिया थे।प्राकृतिक संसाधन ही जमा पूँजी थी।  उस गाँव के एक छोर पर एक छोटी सी झोपड़ी थी उस झोपड़ी में एक लड़का अपने माता-पिता के साथ रहता था मोहन नाम था उसका पर सब उसे मोहना कहते थे। साँवली सूरत और अपनी बातों से सबका मन मोह लेने वाला मोहना की रगों में नया खून बहता था। अपने पिता की छोटी सी दुकान, दुकान भी क्या थी वह झोपड़ी ही उनका घर और आय का साधन उस दुकान पर हमेशा एक आवाज आया करती थी खट खट की जिसमें मोहना जोर-जोर से हथौड़ी चलाया करता था ।लोहार थे मोहना के पिता।  झोपड़ी के एक  हिस्से में सारा दिन भट्टी जलती रहती थी जिसमें लोहा तपता रहता और दूसरे हिस्से गृहस्थी चलती थी। दोनों में एक समानता थी चोट दोनों तरफ बराबर लगती थी।
 भट्टी वाले हिस्से में बैठने की दो चौकियां थी जो ग्राहक के लिए थी वह काम करने वाले की चौकी से कुछ ऊँची थी, काम करने वाले की और ग्राहक की चौकी के बीच की ऊँचाइयों का जो अंतर था बस इतना ही अंतर होता है जातियों में।  बाहर से देखने में पता नहीं लगता मगर यह अंतर बहुत बड़ा होता है इसकी जड़ें बहुत दूर तक होती है।

 वहीं अपने पिता को  यह काम करता देख बड़ा हुआ था मोहना,धीरे-धीरे अपने पिता के साथ उसने लोहे की हर बारीकी सीख ली थी।  पढ़ने को खूब जी चाहता था मोहना का मगर स्कूल-कॉलेज यह सब बहुत दूर थे, जितना हो सका उसके पिता ने उसे पढ़ाया। हथौड़े के शोर के साथ बीच-बीच में एक और ध्वनि सुनाई पड़ती थी ,यह मोहना की माँ की आवाज थी जो लोकगीत गुनगुनाया करती  आँचलिक बोलियों की कोई  पुस्तक नहीं होती ना कोई डिक्शनरी। माँ दादी नानी यह सब चलती फिरती डिक्शनरी होती हैं। लोक गीतों के जरिए अपनी संस्कृति अपनी बोली अपनी भाषा को  दूसरी पीढ़ी तक पहुंँचाती हैं।पहाड़ दिखने में जितने ख़ूबसूरत होते हैं उतना ही कठिन होता है वहाँ का जीवन एक दिन में कोई भी इन पहाड़ों को नहीं जान पाया है और ना ही यह पहाड़ एक दिन में बनते हैं।वर्षों से खड़े हैं उसी जगह पर  बिना थके जाने कितनी पीढ़ियाँ, कितनी सभ्यताएँ देख ली है इन्होंने और आज मोहना की कहानी देख रहे थे, झोपड़ी में क्या घटित हो रहा था वहीं निगाहें किये थे। 

आम दिनों की तरह  मोहन आज भी गर्म लोहे पर हथौड़ा पीट रहा था  तभी किसी के आने की आहट हुई ।