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न! मैं इतना भी भोला नहीं! मैं बोला, मैंने मुँह खोल

न! मैं इतना भी भोला नहीं!
मैं बोला, मैंने मुँह खोला तक नहीं!
लेकिन बाज़ार देखकर
ये समझ पा रहा हूँ कि
वो सफाई का सिपाही नहीं है,
झाड़ू बेचने वाला हर बन्दा
चुपचाप गंदगी फैला रहा है!
...और मेरे कानों में दूर से आता
एक भाषण घुसता चला जा रहा है!
मुझे लगता है कि उसका उच्चारण
या तो समझ या तर्क निवारण 
गलत या बड़ा गंभीर है,
वो अर्थ और अनर्थ की सीमा से खेलता
बड़ा हुनरमंद वजीर/फकीर है!
जिंदगी की कुछ सच्चाइयां
मौन रहकर भी इतनी बलवती हैं
अर्थ उनके समर्थक हैं भले
वो शब्द क्यों न एक चुनौती हैं!
अहिंसा! एक गोल, सफेद रोटी है,
जिसके नीचे चूल्हे में राख ही राख है,
मुझे लगता है हिंसा का न होना असल में
हिंसा की मोल-तोल और वजन-नाप है।
पीछे मुड़कर देखता हूँ
कुछ मेमने झाड़ों से लड़ पड़े हैं,
न लहू, न कराह, फिर भी हम फट पड़े हैं।
फिर हमने पाया, झाड़ों में प्राण नहीं होते,
किसी ने तपाक से कहा,
बकरे भी तो महान नहीं होते। एक कैलकुलेशन
न! मैं इतना भी भोला नहीं!
मैं बोला, मैंने मुँह खोला तक नहीं!
लेकिन बाज़ार देखकर
ये समझ पा रहा हूँ कि
वो सफाई का सिपाही नहीं है,
झाड़ू बेचने वाला हर बन्दा
चुपचाप गंदगी फैला रहा है!
...और मेरे कानों में दूर से आता
एक भाषण घुसता चला जा रहा है!
मुझे लगता है कि उसका उच्चारण
या तो समझ या तर्क निवारण 
गलत या बड़ा गंभीर है,
वो अर्थ और अनर्थ की सीमा से खेलता
बड़ा हुनरमंद वजीर/फकीर है!
जिंदगी की कुछ सच्चाइयां
मौन रहकर भी इतनी बलवती हैं
अर्थ उनके समर्थक हैं भले
वो शब्द क्यों न एक चुनौती हैं!
अहिंसा! एक गोल, सफेद रोटी है,
जिसके नीचे चूल्हे में राख ही राख है,
मुझे लगता है हिंसा का न होना असल में
हिंसा की मोल-तोल और वजन-नाप है।
पीछे मुड़कर देखता हूँ
कुछ मेमने झाड़ों से लड़ पड़े हैं,
न लहू, न कराह, फिर भी हम फट पड़े हैं।
फिर हमने पाया, झाड़ों में प्राण नहीं होते,
किसी ने तपाक से कहा,
बकरे भी तो महान नहीं होते। एक कैलकुलेशन

एक कैलकुलेशन