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कट गई फिर इक रात, ये सोचते सोचते। जिंदगी में अपना

कट गई फिर इक रात, ये सोचते सोचते।
जिंदगी में अपना वजूद, खोजते खोजते।।
जन्म दिया जो मानव का, उसने कुछ सोचा होगा।
आ सकू काम मैं औरौ के, सोच यही भेजा होगा।।
मूक पशु भी जीवन अपना, बिन विवेक जी लेते हैं।
स्वयं ही अपने श्रम बल से, पेट अपना भर लेते हैं।।
फिर क्या अंतर है दोनो में, यदि हमनें ऐसा व्यवहार किया।
जो नहीं किसी की सेवा की, और नहि कभी उपकार किया।।
गजब है तेरी लीला प्रभु, कुछ छप्पन भोग लगाते हैं।
कुछ तपडें सूखी रोटी को, और भूखे ही मर जाते हैं।।
आंखो के आंसू सूख गए, है दुख का पारावार नहीं।
अभावों से मरते गरीब को, क्या जीने का अधिकार नहीं।।
मरती मानवता प्रतिपल है, होता जीवन का उपहास यहां।
दुखी पीड़ित कोई रोता हैं, कहिं होता उत्सव उल्लास यहां।।
प्रकृति-मानवता ही है ईश्वर, कुछ होता इनसे बडा नहीं।
मंदिर मस्जिद क्या जाना, जब ह्दय प्रेम से भरा नहीं।। 
भूल के अपना राग द्वेष, आओ कर्तव्य महान करें।
दीन हीन की सेवा कर, मानवता का उत्थान करें।।
अविरल विपिन सजगता से मानवता की ओर
कट गई फिर इक रात, ये सोचते सोचते।
जिंदगी में अपना वजूद, खोजते खोजते।।
जन्म दिया जो मानव का, उसने कुछ सोचा होगा।
आ सकू काम मैं औरौ के, सोच यही भेजा होगा।।
मूक पशु भी जीवन अपना, बिन विवेक जी लेते हैं।
स्वयं ही अपने श्रम बल से, पेट अपना भर लेते हैं।।
फिर क्या अंतर है दोनो में, यदि हमनें ऐसा व्यवहार किया।
जो नहीं किसी की सेवा की, और नहि कभी उपकार किया।।
गजब है तेरी लीला प्रभु, कुछ छप्पन भोग लगाते हैं।
कुछ तपडें सूखी रोटी को, और भूखे ही मर जाते हैं।।
आंखो के आंसू सूख गए, है दुख का पारावार नहीं।
अभावों से मरते गरीब को, क्या जीने का अधिकार नहीं।।
मरती मानवता प्रतिपल है, होता जीवन का उपहास यहां।
दुखी पीड़ित कोई रोता हैं, कहिं होता उत्सव उल्लास यहां।।
प्रकृति-मानवता ही है ईश्वर, कुछ होता इनसे बडा नहीं।
मंदिर मस्जिद क्या जाना, जब ह्दय प्रेम से भरा नहीं।। 
भूल के अपना राग द्वेष, आओ कर्तव्य महान करें।
दीन हीन की सेवा कर, मानवता का उत्थान करें।।
अविरल विपिन सजगता से मानवता की ओर