आज के इस युग में मानव,बेटी के तन को काट रहा मानो धन दौलत को जैसे,बँटवारों में बाँट रहा त्रिलोकपति वो कान्हा भी,ऊपर से सब कुछ देख रहा पता नहीं इस धरती पर,अब कितना कलयुग शेष रहा लूटने को इज्जत उसकी,दरिंदों ने तैयारी की लाज बचाने आया कान्हा,उस भरी सभा में नारी की मग़र आज इस धरती पर तो,लगता ही नहीं कोई देख रहा पता नहीं इस धरती पर,अब कितना कलयुग शेष रहा मिट्टी के इस तन को जैसे,हवा लगी कोई दानव की शर्मशार कर देती है ये,घटना सुनकर मानव की मिट्टी का ये पुतला कैसे हिंसा होते देख रहा पता नहीं इस धरती पर,अब कितना कलयुग शेष रहा हँसती खेलती रहती,एक मकड़ी से वो डर जाती है क्यूँ आता है ऐसा दिन,जब टुकड़ों में वो बँट जाती है इतना सब कुछ होता है,पर फ़िर भी मानव देख रहा पता नहीं इस धरती पर,अब कितना कलयुग शेष रहा आती जब वो गुड़िया बनकर,ख़ुशहाली छा जाती है उसकी वो प्यारी सी मूरत,हर दिल को भा जाती है किलकार भरी मुस्कान को,चीख़ों में बदलते देख रहा पता नहीं इस धरती पर,अब कितना कलयुग शेष रहा आ मिल जा मानव मानव से,औऱ दुष्टों का तू नाश कर चीर फाड़ दे दुश्मन को,अब कान्हा से ना आस कर वो कल्कि रूप लेकर आया,मैं आत्मचिंतन में दिख रहा पता नहीं इस धरती पर,अब कितना कलयुग शेष रहा ©नरेश कुमार #SunSet #कितनाकलयुगशेषरहा