#OpenPoetry मेरी उंगलियां फंसी पड़ी है इन सिलवटों में, मन नहीं करता इन्हें मिटाने का एक यही तो निशानी है, छूटी पड़ी है जो मेरे पास, वरना तो भीगे तकिये से ज़ियादा करीब तो कुछ है ही नहीं मेरे, तुम्हारे तरफ़ के तकिए के नीचे सारी चिठ्ठियां संभाले रखी है, जिन्हें तुम महीने में एक बार भेज देते हो, सोने से पहले हर रात उन्हें पढ़ लेती हूं, जाने कैसा सुकून है उनमें? जो मुझे तुम्हारे करीब होने का एहसास दे जाता है, जानती हूं उस सरहद की मिट्टी पे खा़ली वक्त में मेरा नाम गोदते रहते होंगें तुम, मन तो तुम्हारा भी होता होगा ना बिस्तरा बांध कर अपना, बस निकल पड़ो अपने घर की सम्त़ , मगर फर्ज़ों का बोझा फिर उस सूटकेस से ज़्यादा भारी हो जाता होगा, तुम पर नाज़ है मुझे, तुम्हारे हर एक फैसले पर भी, तुम्हारे वो अल्फ़ाज़ कि - " इंतज़ार करो मैं ज़रूर आऊंगा, इक फर्ज़ मिट्टी का अदा कर दूं, फिर तुमसे किया हर वादा निभाऊंगा" इन लफ़्ज़ों के ख़ातिर आंसूओं से होंठों की हंसी को आकार दिया है मैंने, और बस फिर हर रात बिस्तरों की इन सिलवटों में, अपनी उंगलियों से जगह करती हूं, और सो जाती हूं तुम्हारी तस्वीर को गले लगा कर, इस उम्मीद से कि एक रोज़ तुम ख़ुद आकर अपनी ख़ुशबू इनमें बिखेर जाओगे। -तुम्हारे इंतज़ार में आंखें खोल कर सोने वाली #OpenPoetry #ekkhat