मैं ज्यादातर अपने मन के माहौल के मुताबिक लिखा करती हूँ. और ख़ासकर तब लिखा करती हूँ जब मन बहुत कुंठित होता है और मुझे सुनने वाला कोई नहीं होता और अक्सर मुझे सुनने वाला कोई नहीं होता. इस समय मैं अपना दुःख लिखने से ज्यादा बेहतर समझती हूँ खुद के लिए कुछ प्रेरणा से भरा लिखना. यानि मैं खुद ही खुद को पॉजिटिव डोज़ देती रहती हूँ. मैं ये बचपन से करती हूँ. यहाँ लिखने से पहले डायरी लिखा करती थी.
लिखने का विशेष कारण यह कि एक तो इस पत्र की टॉलरेंस पावर बहुत ही ज्यादा स्ट्रांग होती है और दूसरा यह आपकी बात को बीच में काटता नहीं न ही रोकता टोकता है और न ही जज करता है. तो आप यहाँ बेबाक खुद को लिख सकते हैं. पर यह फार्मूला आप सिर्फ डायरी में युस कर सकते हैं जहां आपको कोई न पढ़े. अगर आपने अपने मन और दिल की बात गलती से भी यहाँ-वहाँ लिख फिर न कसम से सूर्य ग्रहण तो क्या चंद्र ग्रहन से लेकर हर तरह के ग्रह आपके सर मंडराने लगेंगे. अरे प्राइवेसी भी कुछ होती है कि नहीं. जहां बैठो वहीं दिल के तार छेड़ देते हो. इस बीच लोग आपको महान और ज्ञानी का भी तो टैग देने लगते हैं. अच्छा इसमें कोई बुराई नहीं है. बस हम एक ऐसा जीवन जीने लग जाते हैं जो वास्तव में हम होते नहीं हैं. तो मेरी तो हर रचना सबसे पहले मुझे खुद को ही डेडिकेटेड होती हैं. कारण यह कि मुझे लगता है कोपभवन में जाने के बाद अगर वहाँ से कोई मुझे वापिस ला सकता है तो वो मैं खुद हूँ. और सच ही तो है ये हम खुद ही कारण है अपनी हर दशा के लिए,.
वास्तव में ही हम अपने मन को जितना ज्यादा खोलते हैं इसमें क्षमता है उतना ही ज्यादा ग्रहण करने की और उसके बाद अवशोषित करने की.
तो अवशोषित करिये एक ऐसी ऊर्जा जो आपके मन को खोल पाने में सहायक हो. अपने मन को बहा दो एक ऐसी नदी के सँग जहां वह बच्चा बन अकेला अठखेलियां करे और अंत में आपका परिचय कराये आपके भीतर के अरिन्हत ( बुद्ध ) से,..
तो बस अब न तो किसी को रोकना चाहती हूँ न ही रुकना चाहती हूँ बस बहते रहना चाहती हूँ समंदर के पानी की तरह खारी खारी सारी मैं..