दीप शांति का बुझा जा रहा, जाल भ्रांति का बुना जा रहा। अंधकार के इस कलियुग में कैसे अलख जगाऊँ मैं।। हर घर में अब रावण बैठा राम कहाँ से लाऊँ मैं। मजहब-मजहब शोर हो रहा, राजा-राजा चोर हो रहा। मृत हो चुके इस विषयुग में प्राण कहाँ से लाऊँ मैं।। हर घर में अब रावण बैठा राम कहाँ से लाऊँ मैं । भाई भाई अब लड़ा जा रहा, पाप धर्म से बढ़ा जा रहा। परमाणु के इस नव युग को कैसे शांत कराऊँ मैं।। हर घर में अब रावण बैठा राम कहाँ से लाऊँ मै । सत्य शराफ़त टूट रही है कुर्सी इज्जत लूट रही है राजनीति के इस युग को मर्यादा कैसे सिखाऊँ मैं हर घर में अब रावण बैठा राम कहाँ से लाऊँ मैं