ज़हन में वहशियत है, संविधान बदलने से न निकलेगी समाज की सोच बदलनी होगी तभी यह सूरत बदलेगी। कितनों को भी फांसी दे दो, ये हालात नहीं बदलेंगे जिंदगी के लिए लड़ना होगा , जज़्बात नहीं बदलेंगे। अपनी संस्कृति को संरक्षित करना ही होगा विचार बदलने को समाज को जागरूक होना पड़ेगा संस्कार बदलने को। इस क़बीलाई आचरण से बाहर आना होगा अपने को सभ्य समाज कहते हो तो मनुष्यता को अपनाना होगा। समाज को अब अपनी जिम्मेदारी लेनी होगी, अपने शुद्धि करण की। ये ज़हनी वहशियत किसी और तरीके से समाप्त नहीं हो पाएगी। सारे दण्ड प्रतिक्रियात्मक हैं। अपराध तभी रूक सकता है जब मानवीय मूल्यों को संस्कृति और संस्कार से जोड़ा जाए। ज़हन में वहशियत है, संविधान बदलने से न निकलेगी समाज की सोच बदलनी होगी तभी यह सूरत बदलेगी। कितनों को भी फांसी दे दो,