मेघ अरे वसुधे जरा बोलो , पिपासित सी प्रपीडित क्यों । तपा करती है हमेशा ही , बताने में प्रव्रीडित क्यो ।। हमेशा ही चाहते घन तुम्हे गर्मी न लगने दें । जरा सी भी अधिक पीडा , झमाझम फिर बरसनें दें ।। प्रिय प्रतिबिम्ब " दिव्य शब्द संग्रह "