बहुत बार हम अपने आप को धारा के विपरीत अग्रसर पाते हैं।मैं तो खास तौर पे ये विपरीत-अनुकूल का झंझट छोड़ कर,बाहर किनारे आ खड़ी होती हूं।मुझे लगता है कि ज़रूरी तो नहीं कि हम मौसम की हवाओं के साथ बहे, न बह भी रहे हो तो बहते हुए से दिखें।
जैसे कि आज हिंदी दिवस है,एक तो मेरी समझ में ये नहीं आता कि जिस भाषा के बिना आप सोच नहीं सकते, अपने पुरखो की ढेरों विरासतों को आगे नहीं पहुंचा सकते,उस भाषा के नाम पर ये औपचारिकता क्यूं?
बात सहेजने की है तो हर पल इसे सहेजिये ना।बात बढावा देने की है तो पढिये इसे, बोलिये भी और हो सके तो लिखिये भी।
और अगर हम अपनी भाषा का प्रसार करना चाहते ही हैं तो साल में 365 दिन करें। उसमें क्या आपत्ति है?
मैं उत्सवों के खिलाफ नहीं हूं, लेकिन ये जो नया तमाशा चल पड़ा है दिवसों का,उससे मेरा दिल कभी भी राजी नहीं होता।
हिन्दी हमारे लिये आक्सीजन है,जो हर सांस के साथ हमारे फेफड़ों से होकर हमारे खून में मिल जाती है,तो क्या हम श्वास दिवस भी मनायें अब?
मेरी हैरत की कोई हद नहीं है ये सोचकर कि ये सब अगर मैं अपनी जबान, अपनी भाषा में न कह सकती तो कैसे कह सकती हूं,और इतनी जरूरी चीज़ का दिवस मनाने की नौबत आ जाये तो ये किसी देश, धरती के लिए कुछ अच्छे संकेत नहीं है।बल्कि ज़िन्दगी के किसी भी जरूरी हिस्से या रिश्ते के लिये ऐसा करना पड़े, तो मैं समझती हूं कि हम सबको बैठकर विचार करने की जरूरत है।
खैर ,जब भी मैं ऐसा कोई दिवस देखती हूँ, उस पर रचनायें, विचार पढती हूं,तो मैं भी सायास उस पर कुछ लिखने का प्रयास करती हूँ, लेकिन मन कहीं न कहीं असहमति देता है, मन कहता है कि यदि लिखना है तो बस आज ही क्यूं? जब सहज भाव उमड़े तब क्यूं नहीं?