'विरक्त और निराशक्त' भक्ति में भी आसक्ति विद्दमान है, भक्ति '"पर आसक्ति"' है, भक्त स्वयं से आसक्ति त्याग कर...परासक्त हो जाता है, यानी भक्ति गंगा बाहर की ओर बहने लगती है भीतर से, बिरले हैं भक्त जो विरक्त बोध को प्राप्त हुए भक्ति में, किन्तु ध्यान में निरासक्त हुआ जा सकता है, ध्यान मे आसक्ति और निरासक्ति आपके हाथ की बात होती है, क्योंकि ध्यान आपकी समझ गहरी करता है, और भक्ति में प्रेम की प्रगाढ़ता होती है।प्रेम हृदयगत है बुद्धिगत नहीं...!!! 'मनु' विरक्त, निराशक्त