मैं गंगा क्या अब मां नहीं? (कविता अनुशीर्षक में पढ़ें) मैं गंगा क्या अब मां नहीं? मैं शीतल सी, मैं निर्मल सी, जीवन आंचल में लेकर जीती हूं। मां हूं मैं अमृत देकर भी इस दुनिया का विष भी पीती हूं।। कल-कल बहती, छल-छल बहती,