काश...! कहीं ऐसा होता कि मुस्कुराहट को देखे बिना ये सुबह ना होती पर ना ही फिर हमसे ये तन्हा दिन गुजारा होता... काश...! कहीं ऐसा होता कि तेरी घनी जुल्फों की छाँव में हम बैठे होते और सूरज को देखे बिना इस ढलती शाम का इशारा होता... काश...! कहीं ऐसा होता कि तू मेरे साथ होती और उस काली रात में चाँद से पहले मेरी चांदनी रात का दीदार होता और फिर पूरी रात तेरी बाहों की पनाहों में मेरी ये आंखें और ये तड़पता दिल सोता... काश...! कहीं ऐसा होता कि सजदे में तुझे दुआ में मांगते वक़्त तेरा भी हाथ मेरे हाथों से जुड़ा होता तो खुदा भी मेरी दुआ के इंतज़ार में खड़ा होता... काश...! कहीं ऐसा होता कि सावन की उस रिमझिम बारिश में तेरा आंचल भीगा होता और तेरी उन भीगी जुल्फों का क्या दिलकश नजारा होता... काश...! कहीं ऐसा होता कि इस दिल में मजबूरियों का सागर न होता तो ना ही मैंने कभी देखा किनारा होता मैं छीन लाता में दुनिया से जो तूने मुझे एक बार भी पुकारा होता.... काश...! कहीं ऐसा होता कि तेरे मेहंदी लगे हाथों में दिखाई देता हुआ मेरा ही चेहरा होता तेरी मांग में मेरे नाम का सिंदूर होता तेरी बाहों में मेरी बाहों का हार होता, मेरी जिंदगी में कभी काली घटाओं का पहरा ना होता जो मेरे साथ ये तेरे चांद से चेहरे सा नुर होता... काश...! कहीं ऐसा होता कि तेरे - मेरे साथ को किस्मत ने ना नकारा होता काश...! ये किस्मत ही ना होती तो आज तू मेरी होती और मैं तेरा होता... ©maher singaniya काश...! कहीं ऐसा होता...