भीगा भीगा भीग गया जगरूप रे। मनी भीगा - तन भीग गया।। धुलत - धुलत धुलो जगकन रे, धुल गयो मन को विकार रे।। बरखा की बूंद ढोगाई जग को, ज्ञान का बूंद धो गयो मन को।। भीग गया जगरूप रे। भीग गया मन केश - दृश्य रे।। प्रेम दीवाना भटक को जाना , अखियन को मोह धोए जाना।। भीग गया जगरूप रे। भी गया वह रंग रूप रे।। बरखा आवे है, दुर्गंध ले जावे है। भीतर भीतर टूटन कुछ रह जावे है। अपना कहो नाही, ढोंगी सब रहे।। भीग गया जगरूप रे। छूट गया प्रीतम का प्रीत रे।। बरखा बरसे नैन छलके। छलक गए हो मोरा दुख पीड़ा रे।। दिख गए हो जग्गू मोरा प्रीत रे , मोरा प्रेम रे।। ...कवि सोनू भीगा - भीगा