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लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं रूह भी होती

लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं 

रूह भी होती है उस में ये कहाँ सोचते हैं 

रूह क्या होती है इस से उन्हें मतलब ही नहीं 

वो तो बस तन के तक़ाज़ों का कहा मानते हैं 

रूह मर जाते हैं तो ये जिस्म है चलती हुई लाश 

इस हक़ीक़त को न समझते हैं न पहचानते हैं 

कितनी सदियों से ये वहशत का चलन जारी है 

कितनी सदियों से है क़ाएम ये गुनाहों का रिवाज 

लोग औरत की हर इक चीख़ को नग़्मा समझे 

वो क़बीलों का ज़माना हो कि शहरों का रिवाज 

जब्र से नस्ल बढ़े ज़ुल्म से तन मेल करें 

ये अमल हम में है बे-इल्म परिंदों में नहीं

©Mohd Arsh malik poet sahir ludhyanwi #internationalwomenday
लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं 

रूह भी होती है उस में ये कहाँ सोचते हैं 

रूह क्या होती है इस से उन्हें मतलब ही नहीं 

वो तो बस तन के तक़ाज़ों का कहा मानते हैं 

रूह मर जाते हैं तो ये जिस्म है चलती हुई लाश 

इस हक़ीक़त को न समझते हैं न पहचानते हैं 

कितनी सदियों से ये वहशत का चलन जारी है 

कितनी सदियों से है क़ाएम ये गुनाहों का रिवाज 

लोग औरत की हर इक चीख़ को नग़्मा समझे 

वो क़बीलों का ज़माना हो कि शहरों का रिवाज 

जब्र से नस्ल बढ़े ज़ुल्म से तन मेल करें 

ये अमल हम में है बे-इल्म परिंदों में नहीं

©Mohd Arsh malik poet sahir ludhyanwi #internationalwomenday

poet sahir ludhyanwi #internationalwomenday