एक ग़ज़ल: अख़बार मैं अखबार था पहले, अब व्यापार हो गया, खबरें कम छपे, अब बढ़ता बाज़ार हो गया, दंगा,लूट,हत्या, आतंकी घुसपैठ हो रहे, सब इल्ज़ाम मुझपर,मैं गुनहगार हो गया, लेते लोग मुझको घर वाले काम के लिए, क्या मालूम मैं जुगती या बेकार हो गया, सब हालात कहता, सबकी मैं भोर की दवा, सेहत है लिखी मुझमे मैं बीमार हो गया, ताक़त, बादशाही तुम्हें चाहिए मुझे नहीं, मुल्कों के लिए फ़िर मैं क्यों दीवार हो गया, चलते बाण हैं तुम्हारे ही श्री मुखों से और, मैं छुपकर चलाने वाला हथियार हो गया, इस रमज़ान के पावन बेला में बेमज़हबी, भोजन मुझमें खाया तो मैं,इफ्तार हो गया, था इक दौर तख्ते शाहों के हिल गये कई, मैं तब तलक शासक, अब वो सरकार हो गया, जिसने भी खरीदा मुझको सरकार हो गया, मेरा मुझमें कुछ ना,उसका अधिकार हो गया । - आशीष सिंह ठाकुर 'अकेला'© ©आशीष सिंह ठाकुर 'अकेला' एक ग़ज़ल: अख़बार मैं अखबार था पहले, अब व्यापार हो गया, खबरें कम छपे, अब बढ़ता बाज़ार हो गया, दंगा,लूट,हत्या, आतंकी घुसपैठ हो रहे, सब इल्ज़ाम मुझपर,मैं गुनहगार हो गया,