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एक रोज हँसूंगी मैं आंख भर आने तक ....आंखों के डबडब

एक रोज हँसूंगी मैं आंख भर आने तक ....आंखों के डबडबा आने तक
हँसूंगी हर उस बात पर जिसपर रो पड़ी थी मैं
हर उस स्थिति पर जिसने समझौते को मजबूर किया
हर उस डर को फतह करूंगी जिसने डाले रखी पैरों में बेड़ियां
एक रोज किसी क्रांतिकारी की तरह विद्रोह कर उतार फेंकूँगी कंधों से जिम्दारियों का जुआ हँसूंगी उन सब मजबूरियों पर जिन्होंने जब्त रखे आंसू हर उस शख्स का शुक्रिया करूँगी जिन्होंने छीन ली थी मेरे कदमों के नीचे से ज़मीं  हर उस शख्स का शुक्रिया जिन्होंने ज़िंदगी को उन अहम मोडो की ओर मोड़ दिया जिनसे जूझती रही मैं उम्रभर
चूमना चाहूंगी उनका माथा जिन्होंने मुझसे निश्छल प्रेम किया पर  और बदले में उन्हें नहीं सौंप पाई कोई एक स्मृतिचिन्ह भी
हर उस शख्स से माफी चाहूंगी ठुकरा दिए जिनके कंधे मैंने स्वयं को अपराधी मान हर उस जगह का दोबारा दौरा करूँगी जिन्हें सोच भर लेने से कांप जाती है रूह हर उस जगह अकेले जाऊंगी जहां जाने का साहस कभी नहीं जुटा पाने का सोचती हूँ मैं ईश्वर के हर उस फैसले के खिलाफ जाकर लड़ूंगी मैं जिसे नियति मान आत्मसात कर लिया जीवन में
एक रोज लड़ूंगी मैं स्वयं से ..,स्वयं के लिए

©Jain Saroj
  #samaj