कभी थक कर थम जाते हैं कदम, आँखों में यादो की बूंदे भर जाती हैं, उम्र अभी सांझ ढलने की नहीं है, पर देख पथिकों के दुख थम जाते हैं हम। यहाँ बन मुसाफिर आते हैं सब, भूलकर यह बात भागते हैं सब, देख यह भागादौड़ी बेहिसाब, सहम जाता है मन मेरा अब। इस सफर में न जाने और मोड़ कितने, हथेली में अपनों के साथ पल हैं कितने, आंगन भीगी है बारिश के बूंदों से जितने, कदम से कदम मिलाने सहयोगी हैं जितने।। 🤝लेखन संगी🤝 //मुसाफ़िर// "अहम का पैबंद यूँ सिल जाना है, आख़िरी में मिट्टी में मिल जाना है, चार दिन की संयमता रखना तुम,