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औरों की नज़रें, औरों की मंज़िल, सब इक तरफ थीं, स

औरों की नज़रें, औरों की मंज़िल, 
सब इक तरफ थीं, 
सब एक ही जैसी। 
उगता सवेरा था औरों की राहों में, 
शीतल चाँदनी उस अनजान रास्ते पर। 

कितनी ही रौनक थी, 
कितने मुसाफिर। 
सब भाग रहे थे, 
एक ही रास्ते पर। 
सूनी सी सड़कें, 
मैं अकेली थी राही। 
जो चल रही थी 
उस अनजान रास्ते पर।

सफर औरों का कितना सुहाना था, 
या कितना था मुश्किल 
नहीं जानती मैं।
मेरा सफर ही मेरी थी मंज़िल, 
जो चल रहा था, 
उस अनजान रास्ते पर।

©The Poetic Megha
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