ढलती शाम से मिलकर जब वो आती है, समुंदर की लहर सी हिलोरें खाती है, सुबह की किरण जब उससे जगाती है, वो अधखुले आंखों में सपने भर जाती है, वो हौंसलों से शर्त भी लगाती है, वो नाउम्मीदी के तमगे भी सजाती है, वो कहती एक सार रहना क्या है, वो कहती बेसुवादी को चखना क्या है, वो आधे को दुगना भी कभी कर जाती है, वो हालातों में अपने जूझती ही जाती है हर मिजाज़ के पन्ने पलटती जाती है, जिंदगी को इस कदर बेबाक जी जाती है। #DearZindagi # नजरिया #जिंदगी # कविता # पल