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" हसरतों का बोझ " कुछ हसरतों को लेकर एक राह से

  " हसरतों का बोझ "

कुछ हसरतों को लेकर एक राह से चले थे हम
फ़िर उस राह के भी ना रहे जिस राह के लिए चले थे हम..

कुछ लोग थे राह में हसरतों के नीचे दबे हुए
और कुछ थे हसरतों पर खड़े हुए..

कुछ थे दफ़न राह में कब्र के पत्थर की तरह
और कुछ थे राह में मील में पत्थर की तरह..

कुछ थे जो मुसलसल खिंच रहे थे हसरतों को आगे
और कुछ थे जो हसरतों को आगे लुड़का रहे थे..

" इन हसरतों के लिए इंसान क्या क्या कर रहा है
इतना तो जी भी नहीं रहा जितना मर रहा हैं "

©Manjul Sarkar
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