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एक परिंदा मुक्त हुआ, डर के कैद खाने से, तड़फती रूह

एक परिंदा मुक्त हुआ,
डर के कैद खाने से,
तड़फती रूह के जद्दोजहद
और बीते अफ़साने से,
एक परिंदा मुक्त हुआ,
डर के कैद खाने से।

अरसा बीता,
ख़ुद को अपलक,
बेजीझक बिन निहारे,
कब तक चलता ओट लिए,
रोशनी में दिए के सहारे,
कभी तो जलेगा ही पूरा,
वख्त के ढ़लते पैमाने से
एक परिंदा मुक्त हुआ,,
डर के कैद खाने से।

©Prashant Roy
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