झांकूं उस माधवी-कुंज में, जो बन रहा स्वर्ग कानन में; प्रथम परस की जहाँ लालिमा सिहर रही तरुणी- आनन में । जनारण्य से दूर स्वप्न में मैं भी निज संसार बसाऊँ, जग का आर्त्त नाद सुन अपना हृदय फाड़ने से बच जाऊँ । मिट जाती ज्यों किरण बिहँस सारा दिन कर लहरों पर झिल--मिल, खो जाऊँ त्यों हर्ष मनाता, मैं भी निज स्वानों से हिलमिल । पर, नभ में न कुटी बन पाती, मैंने कितनी युक्ति लगायी, आधी मिटती कभी कल्पना, कभी उजड़ती बनी-बनायी । रह-रह पंखहीन खग-सा मैं गिर पड़ता भू की हलचल में ; झटिका एक बहा ले जाती स्वप्न-राज्य आँसू के जल में । कुपित देव की शाप-शिखा जब विद्युत् बन सिर पर छा जाती, उठता चीख हृदय विद्रोही, अन्ध भावनाएँ जल जातीं । part 3 #allalone Arohi singh 🌿