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. . अरसा ही हो गया है तुमसे मिले तुम्हारे हज़


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     अरसा ही हो गया है तुमसे मिले तुम्हारे हज़ार चाहने पर भी मैं कभी नहीं मिलती कारण मेरी व्यवस्ता है और व्यवस्ता के बाद बचता समय मेरा स्वंय का जहां प्रतिउत्तर में तुम्हें मिलेंगे मेरे बहाने और टाल - मटोल बस. मैं आज भी उतनी ही ज़िद्दी, अकड़ू, खड़ूस हूँ और शायद समय के साथ और ज्यादा हो गयी हूँ. इस बीच मैं पहले से ज्यादा समझदार बड़ी और बूढ़ी हो गयी हूँ हाँ मेरे अंदर का बच्चा अब मेरा दोगलापन समझने लगा है शायद वो भी समझता है समय के साथ इंसान का आगे बढ़ना कितना ज्यादा आवश्यक है. अब बस वो मेरी हाँ में हाँ मिला दिया करता है और  मुझसे से ज्यादा स्याना बनने की कोशिश में लगा रहता है. हाँ वो निरंतर ही तुमसे जुड़ी स्मृतियों को जो उसने अपने मन और ह्रदय में बुकमार्क कर रखी हैं कभी-कभी किसी न किसी बहाने मुझे उस ओर भी खिंच ही लेता है. 

तुम्हें पता है जितना कठिन खुद को किसी को प्रेम करने से रोकना होता है न उससे ज्यादा कठिन है किसी और को खुद से प्रेम न करने के लिए रोकना. इसे ऐसे समझ लो जैसे कि तुम कितने ही बुरे क्यूँ न बन जाओ मेरे लिए या फिर कितना ही बुरा क्यूँ न कर लो मेरे साथ पर ये जो प्रेम कि लौ तुम्हारे लिए मेरे ह्रदय में जल रही इसे कैसे बुझाउ . मैं नहीं बुझा सकती इसे चाहकर भी. मैं तुम्हारे ह्रदय के गर्भ प्रेम के बीज रोपित कर तो सकती हूँ परन्तु कभी उसे बाँझ होते हुए नहीं देख सकती. मैं जितना ज्यादा तुमसे भागती हूँ मेरे अंदर का वैरागी उतना ही मुझे तुम्हारी ओर धकेलता है. प्रेम का आखिरी पड़ाव क्या होता है मैं  नहीं जानती परन्तु यह बंज़र भूमि मुझे श्रापित हुई सी महसूस होती है जैसे किस ने ठग व छल दिया हो इसे और इस पाप की भागीदार पूर्ण रूप से मैं ही हूँ. 

   तुम हमेशा ही अपने प्रश्न पत्र के साथ ऐसे आते थे जैसे तुम्हारे सभी प्रश्न चिन्हो का पूर्णविराम मैं हूँ कोई संदेह नहीं मैंने कभी  तुम्हें डांट- डपट कर वापिस नहीं लोटाया और शायद इसलिए तुम आज भी आते हो किसी भिक्षु की भांति यह सोचकर कि तुम्हारे ह्रदय में उपजी पौध को मेरे नेह रूपी वर्षण से तृप्ति मिल ही जाएगी परन्तु मैं तो स्वंय इस अवस्था में ही नहीं. ऐसा नहीं है कि मैंने अनुराग त्याग दिया है किन्तु हाँ अब मैं जिस अवस्था में हूँ वहाँ चारों और केवल और केवल एकांत और मौन पसरा है. तुम्हारे ह्रदय के गर्भ से जिस पौध ने जन्म लिया है कोई संदेह नहीं वह मेरा ही अंश है परन्तु मैं चाहती हूँ अब तुम ओर केवल तुम उसका सरंक्षण करो. मैं यह नहीं कह रही कि मैं अब नहीं लोटूंगी पर हाँ मैं हमेशा रहूंगी 

आज होली है हमेशा की तरह मैं चाहूंगी की तुम हल्के हरे रंग में रंग लो अब प्रेम की इस पौध पर हरी पतियाँ तो उग ही आयी होंगी न..
हम फिर मिलेंगे.

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     अरसा ही हो गया है तुमसे मिले तुम्हारे हज़ार चाहने पर भी मैं कभी नहीं मिलती कारण मेरी व्यवस्ता है और व्यवस्ता के बाद बचता समय मेरा स्वंय का जहां प्रतिउत्तर में तुम्हें मिलेंगे मेरे बहाने और टाल - मटोल बस. मैं आज भी उतनी ही ज़िद्दी, अकड़ू, खड़ूस हूँ और शायद समय के साथ और ज्यादा हो गयी हूँ. इस बीच मैं पहले से ज्यादा समझदार बड़ी और बूढ़ी हो गयी हूँ हाँ मेरे अंदर का बच्चा अब मेरा दोगलापन समझने लगा है शायद वो भी समझता है समय के साथ इंसान का आगे बढ़ना कितना ज्यादा आवश्यक है. अब बस वो मेरी हाँ में हाँ मिला दिया करता है और  मुझसे से ज्यादा स्याना बनने की कोशिश में लगा रहता है. हाँ वो निरंतर ही तुमसे जुड़ी स्मृतियों को जो उसने अपने मन और ह्रदय में बुकमार्क कर रखी हैं कभी-कभी किसी न किसी बहाने मुझे उस ओर भी खिंच ही लेता है. 

तुम्हें पता है जितना कठिन खुद को किसी को प्रेम करने से रोकना होता है न उससे ज्यादा कठिन है किसी और को खुद से प्रेम न करने के लिए रोकना. इसे ऐसे समझ लो जैसे कि तुम कितने ही बुरे क्यूँ न बन जाओ मेरे लिए या फिर कितना ही बुरा क्यूँ न कर लो मेरे साथ पर ये जो प्रेम कि लौ तुम्हारे लिए मेरे ह्रदय में जल रही इसे कैसे बुझाउ . मैं नहीं बुझा सकती इसे चाहकर भी. मैं तुम्हारे ह्रदय के गर्भ प्रेम के बीज रोपित कर तो सकती हूँ परन्तु कभी उसे बाँझ होते हुए नहीं देख सकती. मैं जितना ज्यादा तुमसे भागती हूँ मेरे अंदर का वैरागी उतना ही मुझे तुम्हारी ओर धकेलता है. प्रेम का आखिरी पड़ाव क्या होता है मैं  नहीं जानती परन्तु यह बंज़र भूमि मुझे श्रापित हुई सी महसूस होती है जैसे किस ने ठग व छल दिया हो इसे और इस पाप की भागीदार पूर्ण रूप से मैं ही हूँ. 

   तुम हमेशा ही अपने प्रश्न पत्र के साथ ऐसे आते थे जैसे तुम्हारे सभी प्रश्न चिन्हो का पूर्णविराम मैं हूँ कोई संदेह नहीं मैंने कभी  तुम्हें डांट- डपट कर वापिस नहीं लोटाया और शायद इसलिए तुम आज भी आते हो किसी भिक्षु की भांति यह सोचकर कि तुम्हारे ह्रदय में उपजी पौध को मेरे नेह रूपी वर्षण से तृप्ति मिल ही जाएगी परन्तु मैं तो स्वंय इस अवस्था में ही नहीं. ऐसा नहीं है कि मैंने अनुराग त्याग दिया है किन्तु हाँ अब मैं जिस अवस्था में हूँ वहाँ चारों और केवल और केवल एकांत और मौन पसरा है. तुम्हारे ह्रदय के गर्भ से जिस पौध ने जन्म लिया है कोई संदेह नहीं वह मेरा ही अंश है परन्तु मैं चाहती हूँ अब तुम ओर केवल तुम उसका सरंक्षण करो. मैं यह नहीं कह रही कि मैं अब नहीं लोटूंगी पर हाँ मैं हमेशा रहूंगी 

आज होली है हमेशा की तरह मैं चाहूंगी की तुम हल्के हरे रंग में रंग लो अब प्रेम की इस पौध पर हरी पतियाँ तो उग ही आयी होंगी न..
हम फिर मिलेंगे.
alpanabhardwaj6740

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