ये कविता मैंने बस सुना है, खुद नहीं लिखा है। सुना था, कि बेहद सुनहरी है "दिल्ली" समंदर से खामोश, गहरी है "दिल्ली" मगर एक "माटी" सदा तुम ना पाए, तो लगता है, गूंगी है बेहरी है "दिल्ली" वो आंखों में अस्कों का "दरिया" समेटे, वो उम्मीद का एक "नजरिया" समेटे, यहां केह रही है, वहां केह रही है, तरप के एक "मां" केह रही है, नहीं पुछता है, कोई "हाल" मेरा, कोई ला के दे दे मुझे "लाल" मेरा। #सनहरी_दिल्ली