जिनके आगो़श में आते ही भूल जाते हैं गम सारे, कोई और नही साहब केवल "वालिद"हैं वो हमारे। चश्म-ओ-चिराग हैं हम उनके, और गिरां हैं वो हमारे। तमाम ज़लाल को कैसे कोई भूल जाए, औलाद की इक इब्तिसाम के लिए, ज़मीं आसमां एक कर जाए, ख़ुदा के रूप में वालिद ही धरा पर आएं। जब इंहिसार थे उन पर तो ख्वाहिशें होती थी पूरी, अब आलम ये है कि जीते तो हैं जिन्दगी पर ख्वाहिश रहती है अधूरी..... इंहिसार - निर्भर आगो़श= आलिंगन इब्तिसाम= मुस्कुराहट गिरां= बहुमूल्य चश्म-ओ-चिराग=प्रिय ज़लाल= गलती, भूल, अवगुण